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हुआ क्या मुझे कुछ पता ही नहीं / कैलाश झा 'किंकर'

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हुआ क्या मुझे कुछ पता ही नहीं
जो मंज़िल दिखी रास्ता ही नहीं।

पड़ोसी हूँ तेरा मगर तुमको ही
मुहब्बत से कुछ वास्ता ही नहीं।

सजा मिल गयी है, मगर मैं ने की
अभी तक तो कोई ख़ता ही नहीं।

समस्या बहुत सामने तन खड़ीं
मगर हल कहीं सूझता ही नहीं।

जिसे चाहता हूँ मैं सबसे अधिक
वही तो मुझे चाहता ही नहीं।

जले सैकड़ों दीप अब तक मगर
अँधेरा कहीं भागता ही नहीं।