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हूं मजबूर हूं । / कृष्ण वृहस्पति

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रात रै खनै
नींद है, सुपना है
थक्योड़ी सांसां नै सिरा‘णो है।

म्हारै खनै
फकत दो आख्यां है।

रात मजबूर है
बिना आख्यां रै
नींद अर सुपना काईं?

म्हैं थोड़ो अड़ियल हूं
खुली आंख्यां ई
देखल्यूं सुपना
अर नींद रांड रो कांई है
घणकरी‘क तो बा लेग्यी
अर थोडी-भोत तो
धीं‘गाणे बी आई जावै है।

दिन री झोळी मांय
आग है, उजास है
दो रोट्यां रो सुंवाज है
अर म्हारै खनै
एक दिन-रात चस्णियो डील है।
अब दिन के
तावड़ै रो अचार घालसी
बी नै तो करणो ई पड़सी
म्हारै दुखणियां माथै सेक।

पण-
म्हूं मजबूर हूं
नींद, सुपनां, उजास अर आग
स्सै रा स्सै पराया है
अर म्हारै खनै
बिना सुपनां री सूनी आंख्यां,
अर एक होळै-होळै धुकतो
छणो-सो डील है।

जिको कीं बीं दिन
भक देणी चेतन हो
छेकड़ फूंकीज ई जावैलो
अर बुझ जावैली
आज बळती ऐ आंखां ई।