भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे! भगवन / मनोज झा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:29, 23 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज झा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <po...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या देख रहा मैँ हे! भगवन,
क्या देख रहा मैँ हे! भगवन।
कहने को करते राजनीति,
पर मन के अंदर रंकनीति।
स्वारथ करता है वाह वाह,
परमारथ करता आत्मदाह।
जो नीति करता नरभक्षण,
हम कहते उसको आरक्षण।
क्या देख रहा मैँ हे! भगवन।
क्या देख रहा मैँ हे! भगवन।
कहते देश कर रहा विकास,
पर पैर बढ़ाता जिधर विनाश।
जब शोर हुआ "जय बजरंगा"।
और मन काँप गया, हो गई दंगा।
जा काहे को हुआ था राम जनम,
जब त्रासित तन औ त्रासित मन।
क्या देख रहा मैँ हे! भगवन।