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हे अमिताभ! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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बैंकाक (थाईलैण्ड) के राष्ट्रीय म्यूज़ियम से निकलकर लिखी गई पंक्तियाँ

देश-काल की सीमाएँ तुम लाँध सुविस्तृत-
यहाँ कहाँ अमिताभ! विराजे हो आत्मस्थित!
अरे, यहाँ तो भिन्न अन्न, थल, शब्द, पवन, जल;
किसने यहाँ बसाया तुमको-दे हदयस्थल?

काल-सिन्धु की लहरों पर खिल रहे कमल बन,
फैलाते शुचि शान्ति, गन्ध, आलोक, समीरण!
चले आ रहे कब से उमड़ाते करुणा-नद!
नवन कमल-से मृदुल चरण धरते सुषमाप्रद!

काष्ठ, धातु औ’ मोम, वस्त्र, मिट्टी, कागज पर-
अंकित मृदु आलोक तुम्हारा है अजरामर!
कपिलवस्तु के वासी, तुम कण-कण में विस्तृत!
शान्त, स्निग्ध, गम्भीर, आत्म-पद पूर्ण समाहित!