है क़ायम आदमीयत, क्या ये कम है?
ग़रज़ क्या इससे हर सू ग़म ही ग़म है?
मैं तन्हाई से बाहर निकलूँ कैसे?
दिखाई कुछ न दे यूँ आँख नम है।
नहीं मिल पाऊँगा मैं कोई ढूँढे,
छुपाए आँख में मुझको सनम है।
असर अपना दिखाए कोई ऐसा,
लगा मरहम, तुझे मेरी क़सम है।
निकलना ग़ैर मुमकिन ‘नूर’ उसका,
जो मेरी ज़िन्दगी में आज ख़म है।