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है टेंट खाली उदास जेबें कहाँ से लाए ये दाल-रोटी / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय

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है टेंट खाली उदास जेबें कहाँ से लाए ये दाल-रोटी,
अभी भी हल्कू के झोपड़े में खड़ी है बन के सवाल रोटी।

करूँगा क्या मैं ज़मीनो दौलत ये सीमो-ज़र ये तमाम दुनिया,
अगर हक़ीकत यही कि जग में है करती सब को निहाल रोटी।

उसे किसी का ये मशवरा कि अगर हुकूमत की ख्वेहिशें हों,
दो-चार भूखों के बीच जाकर दिखा-दिखा के उछाल रोटी।

किसे ख़बर है किसे गिरा दे किसे उठा दे सम्हाले किस को,
बताऊँ कैसे मैं कैसे-कैसे करे है दिन-दिन कमाल रोटी।

गया हुआ था वो चाँद पर,क्या उसे ख़बर है क्या हम पे गुजरी,
बसर-बसर के लिए यहाँ तो बनी हुई है बवाल रोटी।