भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"होली / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
 
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
 
तुन्हें कछु लाज न आई।
 
तुन्हें कछु लाज न आई।
 +
 
(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)
 
(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)
 
</poem>
 
</poem>

12:00, 18 मार्च 2011 का अवतरण

कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुन्हें कछु लाज न आई।

(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)