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हो गए हम कत्ल या फिर बच गए इस बार हम / शिवशंकर मिश्र
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हो गए हम कत्ल य़ा फिर बच गए इस बार हम
देखते हैं रोज उठकर सुब्ह का अखबार हम
क्या पता उन का भी अब, हैं भी कहीं या चल बसे
कर रहे हैं चिट्ठियों का कब से इंतेजार हम
और पुख्ता, और ऊँची रात-दिन होती गयी
तोड़ने को तोड़ते ही हैं रहे दीवार हम
गाल उन के फूले, तैरे मछलियाँ आस्तीनों में
डूबी आँखे, कंधे बैठे, पेट से लाचार हम
वे लड़ाएँ, हम लड़ें, मर जाएँ, वे मारें नहीं
ओहदों में वे थिरकते और हैं बेजार हम
खेल उन का , खेलें हम पर, उन की बाजी, जीत हर
रेस की घोड़ी नहीं बनने को अब तैयार हम
शब्द चलते हैं, पहुँचते ‘मिशरा’ जब संघर्ष तक
स्वपन कविता के तभी कर पाते हैं साकार हम