भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हो गया अपना इलाहाबाद, पेरिस,अबू धाबी/जय कृष्ण राय तुषार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('शरद में ठिठुरा हुआ मौसम लगा होने गुलाबी | हो गया अपन...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
शरद में   
+
<poem>शरद में   
 
ठिठुरा हुआ मौसम  
 
ठिठुरा हुआ मौसम  
 
लगा होने गुलाबी  |
 
लगा होने गुलाबी  |
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
 
ये परिन्दे  
 
ये परिन्दे  
 
झील ,खेतों में  
 
झील ,खेतों में  
 
 
हमें मिलने लगे ,
 
हमें मिलने लगे ,
 
 
चुग नहीं  
 
चुग नहीं  
 
 
पाते अभी दानें  
 
पाते अभी दानें  
 
 
यही इनकी खराबी |
 
यही इनकी खराबी |
 
 
  
 
स्वप्न देखें  
 
स्वप्न देखें  
 
 
फागुनी -
 
फागुनी -
 
 
ऑंखें गुलालों के ,
 
ऑंखें गुलालों के ,
 
 
लौट आये  ,
 
लौट आये  ,
 
+
दिन मोहब्बत  
दिन मोहब्बत
+
+
 
के रिसालों के ,
 
के रिसालों के ,
 
 
डाकिये  
 
डाकिये  
 
+
फिर खोलकर  
फिर खोलकर
+
+
 
पढ़ने लगे हैं खत जबाबी |
 
पढ़ने लगे हैं खत जबाबी |
 
  
 
खनखनाती  
 
खनखनाती  
 
 
चूड़ियाँ जैसे  
 
चूड़ियाँ जैसे  
 
 
बजें संतूर ,
 
बजें संतूर ,
 
+
सहचरी को  
सहचरी को
+
कनखियों से  
+
कनखियों से
+
+
 
देखते मजदूर  
 
देखते मजदूर  
 
 
सुबह  
 
सुबह  
 
+
नरगिस, दोपहर  
नरगिस, दोपहर
+
लगने लगी परवीन बाबी |</poem>
+
लगने लगी परवीन बाबी |
+

10:53, 7 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण

शरद में
ठिठुरा हुआ मौसम
लगा होने गुलाबी |
हो गया
अपना इलाहाबाद
पेरिस ,अबू धाबी |

देह से
उतरे गुलाबी -
कत्थई ,नीले पुलोवर ,
गुनगुनाने लगे
घंटों तक
घरों के बन्द शावर ,
लाँन में
आराम कुर्सी पर
हुए ये दिन किताबी |

घोंसलों से
निकल आये
पाँव से चलने लगे ,
ये परिन्दे
झील ,खेतों में
हमें मिलने लगे ,
चुग नहीं
पाते अभी दानें
यही इनकी खराबी |

स्वप्न देखें
फागुनी -
ऑंखें गुलालों के ,
लौट आये ,
दिन मोहब्बत
के रिसालों के ,
डाकिये
फिर खोलकर
पढ़ने लगे हैं खत जबाबी |

खनखनाती
चूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर
लगने लगी परवीन बाबी |