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हौँ तो आजु घर से निकरि कर दोहनी लै / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

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हौँ तो आजु घर से निकरि कर दोहनी लै ,
खरक गई ती जानि औसर दुहारी को ।
दूरि रह्यो गेह उनै आयो अति मेह ,
महा सोच है रसाल नई चूनरी की सारी को ।
हा हा रँग राखि लीजै ढील जिन कीजै लाल ,
ऎसो नाहिँ पैहो हाय औसर अवारी को ।
आनि कै छिपैये सुनि कुँअर कन्हैया दैया ,
कहा घटि जैहै कारी कामरी तिहारी को ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।