Last modified on 24 मई 2011, at 09:54

ॠतु-वीणा टूटी है / कुमार रवींद्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:54, 24 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=और...हमने सन्धियाँ कीं / क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यह जो ऋतु-वीणा है
जिस पर हम साध रहे गंध-गीत
                                      टूटी है

दिन आदिम गंधों के
आकर कब लौट गए
कौन कहे
आँखों के आसपास
जले-हुए सपनों के
घेरे ही शेष रहे

नए-नए पत्तों के
फूलों के खिलने की चर्चा
                     सारी ही झूठी है

कल परियों ने आकर
ख़ुशबू से
दिन को नहलाया था
अपने इस उत्सव में
बच्चों को
ख़ास कर बुलाया था

हमने उस ख़ुशबू को
चुपके से सूँघा था
                 तबसे ऋतु रूठी है


चाँदी के गुंबज में
रहते हैं दानव -
वे घेर रहे
उथला है एक ताल
उसमें सब
मेंह-पर्व रात बहे

मीनारों से झरती
सोने की परछाईं
           सुन रहे - अनूठी है