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“द विडोज आफ वृन्दावन” / विजेंद्र एस विज

अराध्य,
मान कर ही तो उन्होंने भी
की होगी पूजा उसकी...

शायद,
यह मानकर की थाम लेगा वह,
यह तेज़ बाढ सी
जो पुरातन से चली आ रही है
यहाँ,शोषित होने...

कभी,
खिली तो एक अध-खिली
और,
कभी..भिखारन
तो एक पुजारन बनकर....

वह,
दूर बैठा बस रास रचाता रहा
बाँसुरी की धुन में मगन,
गोपियो के इर्द-गिर्द लिपटा...

नहीं,रोक सका है
वह देवकी नन्दन भी
उन विधवाओ को आने से
वृन्दावन की
इन तंग गलियो में.