Last modified on 27 जनवरी 2016, at 12:54

कभी चट्टान से थे अब पिघलते जा रहे हैं हम / ओम प्रकाश नदीम

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:54, 27 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम प्रकाश नदीम |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कभी चट्टान से थे अब पिघलते जा रहे हैं हम
पिघलकर मुख़्तलिफ़ साँचों में ढलते जा रहे हैं हम

हमारी भाप की ताक़त कभी तो रंग लाएगी
इसी उम्मीद की धुन में उबलते जा रहे हैं हम

न रस्ते का पता है कुछ न मंज़िल का ठिकाना है
न जाने कौन सी धुन है कि चलते जा रहे हैं हम

ये माना भूक में अच्छा बुरा सब ठीक है लेकिन
ये कैसी हड़बड़ी है सब निगलते जा रहे हैं हम

हमारी लौ से नफ़रत के दियों की लौ लगी जबसे
वो बुझते जा रहे हैं और जलते जा रहे हैं हम

हमारे दायरों के बन्द खुलते जा रहे हैं सब
ख़ुद अपनी क़ैद से बाहर निकलते जा रहे हैं हम