भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

104 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:39, 31 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वारिस शाह |अनुवादक= |संग्रह=हीर / व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मलकी आखदी लड़यों ना नाल चूचक कोई सुखन<ref>मेहणा, ताना</ref> न जीउ ते लावना ई
केहा मापियां पुतरां लड़न हुंदा तुसां खटना ते असां खावना ई
छिड़ माल दे नाल मैं घोल घती रातीं सांभ मझीं घरीं आवना ई
तूं ही चोय के दुध जमावना ईं तूं ही हीर दा पलंघ वछावना ई
कुड़ी कल दी तेरे तों रूस बैठी तूं ही उस नूं आ मनावना ई
मंगू माल ते हीर सयाल तेरी नाले घूरना ते नाले खावना ई
तेरे नाम तों हीर कुरबान कीती मंगू सांभ के चार लयावना ई

शब्दार्थ
<references/>