Last modified on 16 जून 2012, at 13:54

111 से 120 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

पद 117 से 118 तक

(117)

हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै।
जेहिं उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति सोइ निसि-बासर कीजै।1।

जानत अर्थ अनर्थ -रूप, तमकूप परब यहि लागे।
तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे।2।

भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मैं न बिचारो।
मद-मम्त्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो।3।

बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।
बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी।4।

मैं अपराध-सिंधु करूनाकर! जनत अंतरजामी।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसति तव सरन उरग-रिपु -गामी।5।

(118)

हे हरि! कवन जतन सुख मानहु।
ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु।1।

जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरि पद-सुख पाइय कैसे।2।

देखत चारू मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी।
सबिष उरग-आहार , निठुर अस, सह करनी वह बानी।3।

अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल-अनुरागी।

 ते तब प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी।4।

जद्यपि मम औगुन अपार, संसार -जोग्य रघुराया।
तुलसिदास निज गुन बिचारि करूनानिधान करू दाया।5।