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20 मार्च 2007 की खबर / सर्जिओ इन्फेंते / रति सक्सेना

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अखबारों में खबर है
कि बड़ी नदियाँ मर रही हैं।

मृतप्राय है यांगटीसी।

मिकौंग,सालवीन, गंगा,
सिंधु,डेन्यूब,प्लेटा,
ब्रावो, जिसका दूजा नाम है ग्रैंड
नाइल की विक्टोरिया झील
और प्यारी मरे, मर रही हैं।

वे वाकई मर रही हैं
और उनके मरने के लिए कोई सागर नहीं होगा।

लेकिन यह नहीं कहती खबर
कि हर नदी के दफ्न होने से पहले
जरूरी होता है उसका मारना।

बंद नहीं होता नदी का मकबरा
चिटका, धूल-धूसरित तल
बतलाता रहता है नदी की मृत्यु का क्रम।

उस मौत के किनारों पर बसे
शहरों की जनसंख्या घटने लगेगी।

आदत के मारे स्कूली बच्चे रटते रहेंगे
कि पुराने जमाने में लोग
नदी के स्वच्छ तटों पर
बनाते थे अपने घर।

प्राचीन छवियों के अभिलेखागार के अभाव में
(चमकीली धार
जो खींचती है एक काला पर्दा,
वह बेधता हुआ चौरस बहाव
जो शांत हो मिल जाता है अंततः
हरे फेनिल समुद्र में)
किसी को तो बताना होगा बच्चों को
कि कैसा होता था नदी का मुहाना,
ठीक वैसे ही
जैसे समझाता है कोई
असारता, शून्य या भ्रम की अवधारणा।