भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

213 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मही टुरन ना बाझ रंझेटड़े दे भूहे होइके पिंड भजायो ने
धौन चाइके बूथियां उतांह करके शोर घाट ते धुम्मला लायो ने
मार चुंगियां लोकां नूं ढुंढ़ मारनभांडे भन्न के शोर घतायो ने
लोकां आखया रांझे दी करो मिंनत पैर चुमके आन जगायो ने
चशमां पैर दी खाक दा ला मथे वांग सेवकां सखी मनायो ने
भड़थू मारयो ने दवाले रांझने दे लाल वेग दा थड़ा पूजायो ने
पकवान ते पिंनियां रख अगे भोलू राम नूं खुशी करायो ने
मगर मही दे छेड़के नाल शफकत<ref>प्यार</ref> सिर टुमक चा चवायो ने
वाहो दाही चले रातो रात खेड़े दाइरे जा के देहुं चढ़ायो ने

शब्दार्थ
<references/>