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22 दिसम्बर, उत्तरी गोलार्ध का सबसे छोटा दिन / दिलीप चित्रे / तुषार धवल

मैं तरसता हूँ
आदिम गुफ़ा के लिए।
मेरे पशु को नींद चाहिए।

मेरे पोषण को बहुत कम बचा है
सिवा उसके जो मेरे भीतर संचित है।
मैं बहुत धीमी साँस लेना चाहता हूँ,
तल को छूते हुए।

काश यह दिन और भी छोटा हो पाता,
रोशनी के क्षणांश जितना।

काश यह चक्र और भी धीमा हो पाता,
बस एक क्षणिक चमक,
चौबीस घण्टों में, बाकी सब एक गहरी रात।

मैं आँखें बंद कर लेना चाहता हूँ हिमपात पर,
मैं अनजान रहना चाहता हूँ बदलाव की निरन्तरता की पीड़ा से,
घड़ी की ज़िद से, धरती के घूमने से, नक्षत्रों की चाल से।

सितारों और उपग्रहों से,
उस बल से जो हमें देश काल में
मोड़ देता है,
चेतना के आन्तरिक घुमाव से,

मैं होना चाहता हूँ : न ऊर्जा, न पदार्थ, न जीवित कुण्डलिनी।
सिवाय उस बोध की सबसे छोटी झपक के,
जो दबी है त्वचा
और मांस के भीतर,
मस्तिष्क की खोह में छुपा, जाड़ों का रहस्य।

अँग्रेज़ी से अनुवाद -- तुषार धवल