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24 बच्चे बाल सुधार गृह से भागे / शिवप्रसाद जोशी

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सुधरना नहीं था हरग़िज़
ये तय था वे नहीं मानेंगे वहाँ का कानून
और विरोध करेंगे
खाना न खाकर या ज़ोरदार पिटाई खाकर
चुप ही रहेंगे रातों को जगेंगे मुकम्मल योजना के लिए
और एक दिन जब दिन में सुधार गृह की सफाई का समय होगा
वे एक-एक कर हो जाएंगे गिनती से बाहर
ब्रह्मांड के इस अदना कोने के अत्यंत अदना नक्षत्र
जिन्हें ठीक से टूटना तक नहीं आता जो सीख रहे थे चमक के बारे में
खिंचते चले जाएंगे किसी काले अनिश्चित अंजाम की तरफ़
प्रकाश से तेज़ न होगी अगर उनकी भागने की रफ़्तार
वे 24 बच्चे

भागे वे रोशनी से भी तेज़ जो
निकलेंगे बाहर निकल जाएंगे
यथार्थ की काली छायाओं से छिटककर भले ही चोट खाकर
एक शिशु ब्रह्मांड की तरफ़
उसकी सर्जना में खपाएंगे खुद को
बाल सुधार गृह से भागे 24 लड़के
नये यथार्थ से सुधार गृहों को हटाएंगे
अब पकड़ में नहीं आएंगे
वे 24 ढंग से अपना मुस्तकबिल बनाएंगे

अपने लिए अन्धेरा चुनेंगे या उजाला
कैसे कहें दीवारें नहीं चुनेंगे आइंदा
घर जायेंगे या भटकेंगे
सुधार गृह से छुटकारे में कितने सवाल हैं राहें गड्डमड्ड ख़तरे
कुछ न सोचकर फिर भी बच्चे निकल आएंगे बाहर
जैसे सूरज के खिंचाव से छुड़ाते ख़ुद को कहीं भी फिंकवा दिए जाने को तत्पर बेशक
लेकिन किसी तपती क़िलेबंदी में कभी न लौटने की ठान ये बच्चे।