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65 / हरीश भादानी

क्या ज़रूरी है-
यह भूख
अब इस ढलती उमर में अदब सीख ले?
यह भूख
जन्मी जिस घड़ी
तभी न बजी थालियां
न बाँटे गये नारियल
और तो और
परिणीता गोद भी इस तरह से लजी
ऊँचे उठे पत्थरों से डरी
भागती जा छिपी
एक शमशान की आग में,
दुधमुंही भूख पानी ही पी-पी बढ़ी;
गुलामी-
भूख की जिन्दगी का है पहला नियम
इसलिये अहम् के,
रंग के रूप के, सूर्ख चाबुक
तड़कते रहे
हिचकियां लेती हुई
सांस की डांड चलती रही,
भूख
यूँही उभरती जवां हो गई,
भूख
एक से दो-तीन-चार हो गई,
इसी-भूख ने ही
भरम की हवेलीनुमा पाठशाला में
सूखी किरकिरी रोटियाँ बाँट
जीवन-जिया
और जीना सिखाया
एक से एक जुड़ती गई भूख को !
और तो और
बीमार या कमज़ोर
झुकती हुई भूख के नाम
सजायें लिखी
मौत के गाँव में अज्ञातवास की !
इस भूख का एक अपना नगर
एक अपना हुज़ूम,
एक अपना नियम !
यह भूख
मांगे सुखों पर जिये ! यह अदब सीखले !
हुकुम पर चले-यह होगा नहीं !
यह भूख एक ठंडा हुआ फौलाद है
जो झुकता नहीं
जो बिखरता नहीं,
सिर्फ टूटता भर है
इस छोर से किसी छोर तक !