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81 से 90 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद 83 से 84 तक

(83)

 कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।
अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे राम मन बचन-काय।।

लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन-बाय।।

मध्य बसस धन हेेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय।।

सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय।।

अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय।।

जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्यौ गयँद जाके एक नाँय।।

(84),

तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।
भयो है सुगम तोको अमर- अगम तन, समुझिधौं कत खोवत अकाथ।1।

सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।
यह विचारि, तजि कुपथ -कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ।2।

 देखु राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।
हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु , लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ।3।

तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल , अपनाये जानकीनाथ।4।