भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँधेरे में रावण / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 13 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेंद्र गोयल |अनुवादक= |संग्रह=प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रतीक हो तुम बुराई का
वो भी दस गुना
अच्छाई थी अकेली,
बहुत अकेली
वर्षों का क्रोध ही
सुखा पाया नाभि का अमृत
बना पाया सबल उठाने का हथियार
कैसा विरोधाभास
मर गया-अमृत
सभी रंग कला व बिंदू के
नाद अकेला
जब तक रहा देह भर जीवन
लंका बचाये रहा
क्या थी कमी जो उठा लाये धरा
स्वर्ण से छले को, स्वर्ण से मढ़ने
क्या कोई आसक्ति थी
या दिलाना क्रोध था
इसलिए न माने
जुड़े हाथों की बात
क्या था पाना,
क्या लौटाना
जहाँ अशोक था
वहाँ कैसा विरह
किसके लिए ये खेल था
या बिछड़े हुओं का मेल था
लीला थी कैसी
वध कर रावण का
देह धरे के दंड से
आत्मा उसकी छुड़ा दी
आज भी उसको जलाकर
अंधकार में रोशनी कर देते हो।