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अंग अनंग तहीं कछु संभु / प्रवीणराय

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अंग अनंग तहीं कछु संभु सुकेहरि लंक गयन्दहिं घेरे।
भौंह कमान तहीं मृग लोचन खंजन क्यों न चुगै तिलि नेरे॥
है कच राहु तहीं उदै इंदु सुकीर के बिम्बन चोंचन मेरे।
कोऊ न काहू सों रोस करै सुडरै डर साह अकबर तेरे॥