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अंगिका रामायण / चौथा सर्ग / भाग 10 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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उन्नेॅ कुटिया पे ऐला लौटी क विभाडक तेॅ
एकदम कुटि सुनसान हुन्हीं पैलका।
बेर-बेर शृंगी-शृंगी कही केॅ पुकारलन
चारो दिश यहाँ-वहाँ सगरो चितैलका।
वन में ही कोनो दिश निकलल होत शृंगी
सोची हुन्ही शाम तक इंतजार कैलका।
जब ध्यान करि क देखलका कि शृंगी कहाँ?
चंपा राजमहल में उनका देखलका॥91॥

बुझल विभांडक कि छल भेल शृंगी संग
कौन दुरमती छल शृंगी संग कैलकै?
कौन छेलै जे कि ऐलोॅ छेलै मालिनी वनोॅ में?
अपना के शिष्य जे कहोल के बतैलकै।
मन में उठल क्रोध, बढ़ल, प्रचण्ड भेल
क्रोध में तमकि तब फरसा उठैलकै।
वेग से पहुँ चि गेला चंपा के जंगल बीच
वहाँ से ऊ चंपा के नगर-पथ धैलका॥92॥

जय ऋषि विभांडक, जय ऋषि विभांडक
जय ऋषि विभांडक गूंजित सगर छै।
राजा शृंगी के रोॅ जय, राजा शृंगी के रोॅ जय
जय-जयकार से गूँजित घरे-घर छै।
फूल बरसावै डेगे-डेग पे नगर वासी
फूल से पटल यहु नगर-डगर छै।
सगरो सम्मान पावी क्रोध निरमूल भेल
अजब सोहान लागै चंपा के नगर छै॥93॥

नगर के द्वार पर फूल के रॉे हार लेने
सगरो कतार बद्ध पुरूष देखलका।
वहेॅ भीड़ मध्य करबद्ध खड़ा रोमपाद
विभांडक सहजें बॉहोॅ में भरि लेलका।
सब के लगल जेना समधी मिलन भेल
अक्षत-कुसुम सब मिली बरसैलका।
मन बीच उपजलडर निरमूल भेल
हरखित ऋषि सब चित हरसैलका॥94॥

कुण्डलिया -

समधी के मतलब लिखै, ज्ञानी जन ‘सम-ज्ञान’।
‘सम-दौलत’ समधी जहाँ, तहाँ मान-अभिमान॥
तहाँ मान-अभिमान, आन में कान कटावै।
देखै लोग निनान, अेॅ दुरजन ताल लगावै॥
मिटै मूल सम्बन्ध सदा ‘सम दौलत जी’ के।
सुखद रहै सम्बन्ध हमेशा सम-समधी के॥1॥

दोहा -

विहँसि विभांडक ऋषि कहै, रोमपाद से जाय।
हम अपनोॅ आश्रम चलव, जल्दी करू विदाय॥16॥

फेरो अंगदेश लेली मंगल बचन कही
वर आरो वधु के आशिष हुन्हीं देलकै।
वधु के स्वरूप देखि आनन्दित भेल ऋषि
बार-बार कहि शुभकामना सुनैलकै।
सब शुभ कहि ऋषि लौटै लेॅ तैयार भेल
रथ पर रोमपाद उनका बिठैलकै।
चलल पवन-गति मालिनी पहूँची गेल
ई कथा सुमन्त दशरथ के सुनैलकै॥95॥

बोलल सुमन्त सुनोॅ प्रेम से अवधपति
नारद शृंगी के यश घुमि-घुमि गैलकै।
शृंगी के रोॅ यश सुनि विश्व के नरेश सिनी
दूत भेजी यज्ञ हेतु नेउता पठैलकै।
सब के निमंत्रण सप्रेम अस्वीकार करि
सब-टा समदिया के सादर लौटैलकै।
ऋषि रहि गेल राजा रोमपाद के रोॅ घर
अद्भुत आदर सम्मान वहाँ पैलकै॥96॥

लंका के रोॅ दूत जब लौटल निराश भेल
आरो नाकारातमक खबर सुनैलकै।
लंका के नरेश तब मन में संकल्प बाँधी
अपने रावण अंग देश दिश धैलकै।
आवी केॅ दशानन विभांडक के कुटिया पे
अपना के हुन्हीं ऋषि कुल के बतैलकै।
दादा जी पुलस्य ऋषि, पिता विश्वश्रवा ऋषि
अपना के भ्राता ऊ कुबेर के बतैलकै॥97॥

सादर सप्रेम तब ऋषि सनमुख आवी
बैठी क पुराण कथा दशानन गैलकै।
अपना के वेदपाठी ब्राह्मण कही क हुन्हीं
वेद के रोॅ ऋचा मुक्त कंठ से सुनैलकै।
अपनोॅ विनम्रता प्रमाणित करै के लेली
दोनों हाथोॅ से ऋषि के चरण दवैलकै।
लंकापति पर ऋषि बड़ परसन्न भेल
आरो तब स्वीकृति के सबद सुनैलकै॥98॥

पिता के आदेश के रोॅ पालन निमित्त शृंगी
लंकापति संग गेल यज्ञ करवाय लेॅ।
शंृगी आगमन से ही सब हरखित भेल
चलल रावण तब नगर देखाय लेॅ।
यज्ञशाला, देवशाला, पाठशाला, पाकशाला
संग-संग अपन अखाड़ा देखलाय लेॅ।
सगरे से घुमि तब अपनोॅ महल ऐला
अपनोॅ सकल सुख वैभव देखाय लेॅ॥99॥

दोहा -

धनबल नासै ज्ञान के, बरबस बनै असंत।
जैसे पूरण वर्ण के आधा, करै हलन्त॥17॥

देखलन शृंगी वहाँ देवता के दास होलोॅ
सगरो खबास जकाँ उनका खटाय छै।
कोनो भरै पानी कोनो करै दरवानी वहाँ
केकरो से नगर मंे झाडू लगवाय छै।
सोना के सिंहासन पे रावण विराजमान
ऋषि आरो देवता पे हुकुम चलाय छै।
रावण के देखी शृंगी मन में बिचार करै
कहीं से भी ई न ऋषि कुल के बुझाय छै॥100॥