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अंगिका रामायण / चौथा सर्ग / भाग 7 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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कुटिया के आस-पास, कुटिया के गति-विधि
समझै में कुल सप्ताह दिन लागलै।
कोन जुगति करि केॅ कुटिया के पास आवौ
घुमतें रहलि कुछ टेर ही न लागलै।
शृंगी दरसन भेल चित्त परसन्न भेल
देखि केॅ विभांडक के डर बड़ी लागलै।
मुरि केॅ सहेली सिनी के ऊ पीछे छोड़ी ऐली
कुटि पर आवै के प्रयास करें लागलै॥61॥

एक दिन बोध भेल, नै छै विभांडक ऋषि
कुटि के बाहर जब शृंगी के देखलकै।
शृंगी सनमुख तब आवी क प्रकट भेली
तपसी कुमार के रो रसता रोकलकै।
मुनि पुत्र देखलक, देखते ही रहि गेल
एहनोॅ स्वरूप त ऊ कभी न देखलकै।
मन में हजार प्रश्न एक वेर उमड़ल
होठ पर ऐतें-ऐतें कुछ न पुछलकै॥62॥

सोरठा -

छन-छन उठै सवाल, मन समस्त उत्तर चहै।
अजब होठ के हाल, जे जकड़ल संकोच बस॥5॥

विभांडक गेलोॅ छेलै ऋषि मुद्गल पास
सुनसान कुटिया नगरवधु पैलकै।
असगर शृंगी आस-पास बिचरैत छेला
सून कुटिया के लाभ आवी क उठैलकै।
अंग-अंग उनकोॅ बिलोकी ऋषि शृंगी सोचै
कोन लोक वासी छिक समझी न पैलकै।
दोनो हाथ जोरी, फेरो दोसती के हाथ माँगी
प्रेम से अपन दोनों हाथ के बढ़ैलकै॥63॥

ऋषि के स्वरूप लागै दिव्य संस्कार जेना
कोनो देवता आवी मनुज रूप धैलकै।
मुखरा निहारते ही ‘भान’ के रोॅ भान भेल
पुलकल मन असपरस जे कैलकै।
तब तपसी भी दोनों हाथ जोड़ी राखलक
आगत अतिथि के देखी केॅ मुसकैलकै।
अतिथि के स्वागत में तपसी विनितवत
आँगन के मृगचर्म आनी केॅ बिछैलकै॥64॥

अतिथि यति के जटा-जूट भी अजीब लागै
टेढ़ भौंह लागे जेना धनुष समान छै।
दिव्य वर्ण, मुख लागै पूनम के चाँद जेना
अधर पकल तिलकोर के समान छै।
जटा में कनेल फूल लागै कि कनक लता
गरदन अमरित कलश समान छै।
आरो वक्ष लागै संस्कृति के कवच सन
तपसी से भिन्न ई अजीब परिधान छै॥65॥

कखनो नगरवधु शृंगी के निहारै रूप
कखनो विभाण्डक रोॅ कुटी केॅ निहारै छै।
आँगन के मध्य एक ज्वलित हवन कुण्ड
जहाँ दू-टा यति वेद मंतर उचारै छै।
आम के रोॅ डाल पर कोयली कुहुकि उठै
पेड़ के रोॅ ओठ धरि सूरूज निहारै छै।
रचि केॅ प्रशस्ति गीत सुनबै नगरवधु।
बेर-बेर अपनोॅ शबद सहियारै छै॥66॥

पुछलन शृंगी कहोॅ कोन देश के रोॅ तोहें
कोन संप्रदाय के तों गरिमा बढ़ाय छेॅ?
मालिनी के जंगल में आवै के उद्देश्य कहोॅ?
कोन देवता के तोहेॅ असतुति गाय छेॅ?
गुरू के रोॅ नाम अेॅ अपन आसरम कहोॅ?
अजगुत भेषधारी तपसी बुझाय छेॅ!
रूप-रंग बोल-चाल बहुत सलौना लाग्घौं
कहिने पता ने तोहें बड़ी मन भाय छेॅ!॥67॥

दोहा -

सुनि शृंगी के प्रश्न तब, भेल अंशु निमझान।
लगल टटोलेॅ की कहौं! जागल अंतः ज्ञान॥11॥

बोलली नगरवधु अंग के निवासी छिकौं
आरो अनुगामी छिकौं व्रात्य सम्प्रदाय के।
मालिनी के जंगल में ऐलोॅ छी भ्रमण लेली
पावै छी आनन्द शिव के रोॅ यश गाय केॅ।
निगुरा नगरवधु झुठ बात बोली गेली
गुरू के रोॅ नाम ऊ ‘कहोल’ बताय केॅ।
अजगुत भेष के रोॅ कारण ऊ कहि गेली
धीरे से गृहस्त धर्म अपनोॅ बताय के॥68।ं

उतंग उरोज के निहारै जब शृंगी ऋषि
उनका ई रूप बड़ी अजबे बुझाय छै।
सहज अबोध भाव वक्ष के परसि पूछै
हमरा से भिन्न वक्ष कहिने बुझाय छै।
कहिने चमक तोरोॅ जटा के अजूब लागै?
अंग के भसम से सुगन्ध बहराय छै।
कोन वृक्ष के रोॅ फल संग में तों लेने ऐलेॅ
मालिनी के वन में जे नजर न आय छै॥69॥

कहलकि ‘अंशु’ हम रहै छी मंदार पर
चढ़तें-उतरतें ई वक्ष फूली जाय छै।
जटा के चमक के रोॅ कारण बतैलकी कि
वहॉ के रोॅ संत लट खोली के नहाय छै।
भसम सुगन्धित के कारण बतैलकी कि
भसम में वहाँ लोगें चन्दन मिलाय छै।
इहो मीठ फल कोनो वृक्ष के न फल छिक
वहाँ के रोॅ संत सिनी हाथ से बनाय छै॥70॥