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अंगिका रामायण / तेसरोॅ सर्ग / भाग 6 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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ई प्रसंग सुनि सब देवता चकित भेल
नारद के यश तब सब मिली गैलकै।
नारद के मन अभिमान घर करि गेल
अपना के ऋषि कामजीत बतलैलके।
अपनोॅ ही पीठ अपने से बार-बार ठोकी
आबी स-प्रसंग महादेव के सुनैलकै।
नारद के मन में देखी क अभिमान शिव
एक-टा जरूरी बरजन बतलैलकै॥51॥

कहलन महादेव एक बात सुनोॅ ऋषि
ई प्रसंग हरि पास भुलियो न कहिहॉे।
यदि कहिं रमापति चरयो चलावेॅ तब
उनका प्रनाम करि बस चुप रहिहोॅ।
शिव केरोॅ सीख ऋषि उलटे समझि गेल
भारद्वाज एहनोॅ के वाह-वाह कहिहोॅ।
नीक बात सुनि जौने उलटा अरथ धारै
ओहनोॅ के उचित भी कहना न चाहियोॅ॥52॥

शिवके कहल बात चित न चढ़ल तब
काम-जीत कथा ब्रह्मदेव के सुनैलकै।
अपनोॅ ही पीठ अपने से थपकावै सन
अपनोॅ प्रशंसा अपने ही मुख गैलकै।
मन न भरल तब चलि भेला-क्षीर-सिन्धु
वीणा के मधुर धुन, हरि गुण गैलकै।
कोन विधि राम भजि काम के जीतल गेल
काम के चरित ऋषि राम के सुनैलकै॥53॥

दोहा -

सब दोषोॅ से पैग छै, अपनोॅ मुख यश गान।
उनका अभिमानी गनै, मान हनै भगवान॥10॥

कामजीत के रोॅ मद सिर पे सवार भेल
नारद अपन यश फेरो दोहरैलकै।
नारद के मद से भरल जानि रमापति
विधि बिपरित जानि वाह-वाह कैलकै।
जग हितकारी हरि नारद के हित लेली
मनेमन गुपुत परन एक कैलकै।
सब के रोॅ मान-मद-मोह के मेटनिहार
नारद के लेली एक जुगती जुटैलकै॥54॥

जिनकर मन में तनिको अभिमान आवै
सब अभिमान तब राम जी मिटाय छै।
जेना कि चतुर वैद्य रोगी के सड़ल अंग
निरमम बनी काटी काटी केॅ हँटाय छै।
नारद कें मोह-अभिमान के मिटावै लेली
रमापति तुरत मंे जुगति भिराय छै।
छन में ही सब सत्-योजन विशाल एक
माया पति माया के नगर निरमाय छै॥55॥

माया के नगर में बसल राजा शीलनिधि
जिनकर बेटी विश्वमोहिनी कुमारी छै।
जिनकर रूप के न शेष भी बखानी सकै
त्रिभुवन सुन्दरी, अनुप-रूप धारी छै।
तिनकर स्वंवर रचल गेल नगर में
अजब छै मोहक, नगर मनोहारी छै।
ठाम-ठाम भाट आरू चारण गायन करै
राजा शील निधि के रोॅ वलि-वलिहारी दै॥56॥

शीलनिधि के रोॅ राज देखलन देवऋषि
रचना जहाँ के सुर-पुर के समान छै।
सब नर-नारी लागै सुन्दर सुशील सभ्य
वनिक-धनिक-यति बड़ी गुणवान छै।
आवी गेल राजा के महल तब देवऋषि
भाट आरू चारण जहाँ कि करै गान छै।
शील निधि के रोॅ कन्याँ विश्वमोहिनी कुमारी
सुनलक नारद कि बड़ी भाग्यवान छै॥57॥

राजा शील निधि तब धिया विश्वमोहिनी के
हस्तरेखा आवी क नारद के देखैलकै।
नारद देखलकाथ कन्या के रोॅ भाग्यरेखा
कुछ बात कही कुछ बात के छिपैलकै।
इनकर वर तीनो लोग के विजेता होत
चीर अविनाशी होत चरचा न कैलकै।
अपनोॅ विवाह के रोॅ कामना मनोॅ में राखी
उलट-पुलट कुछु वाँचि केॅ सुनैलके॥58॥

दोहा -

हरि के माया में फँसल, ज्ञानी-गुनी-प्रवीन।
कामजीत नारद बनल, फेरो काम अधीन॥11॥

राम जी के प्रेरणा से, विश्वमोहिनी के रूप
नारद के क्षण में वे-मत्त करि देलकै।
चित्त में बसल जब विश्वमोहिनी के रूप
नारद के सब सुध-बुध हरि लेलकै।
तखने से छुटि गेल राम जी के ध्यान, हुन्ही-
जखने से व्याह के विचार करि लेलकै।
राम के बिसारी, काम के रोॅ सुमिरन करै
छुटि गेल जोग चित भोग भरि लेलकै॥59॥

विश्वमोहिनी के हेतु नारद विचार करै
विश्वसुन्दरी केना क कोन विधि बरतै।
जटा-जूट धारी ऋषि परम उदास भेल
एहनोॅ में सुन्दरी पसन्द केना करतै।
एक क्षण लेल फेर राम जी के ध्यान भेल
परम हितैसी उपकार हुन्हीं करतै।
राम जी से माँगि लेव सुन्दर स्वरूप हम
मोहित जे रूप विश्वमोहिनी के करत॥60॥