भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंगिका रामायण / दोसर सर्ग / भाग 5 / विजेता मुद्‍गलपुरी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:54, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजेता मुद्‍गलपुरी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जेना त्रिपुरासुर के वध लेली महादेव
प्रमथ आदि गणोॅ के संग आगू बढ़लै।
वैसीना कार्तिक जी के पीछू-पीछू देव सब
तारक असुर के बिरूद्ध आगू बढ़लै।
पहँुचल देवता आकाश गंगा तट पर
देवनदी कार्तिक के आदर में बढ़लै।
कार्तिक कुमार तब धन्य-धन्य-धन्य भेल
देव क रोॅ हौसला आकाश लगि चढ़लै॥41॥

इन्द्र देव अपने एरावत पे चढ़ि गेल
भेड़ पे अग्नि देव चढ़ि पथ धैलकै।
भैंसा पर चढ़ि क चलल यमराज देव
मेघ के समान तब गरजन कैलकै।
एक टा ‘नैऋत्य’ नाम के वली असुर छलै
देवता के हित में जे खड़ग उठैलकै।
चलल लड़ै के लेली, प्रेत पे सवार भेल
सब देवता सिनी के हौसला बढ़ैलकै॥42॥

चलल वरूण देव चढ़ि घड़ियाल पर
पालकी पे चढ़ि क कुवेर देव चललै।
हरिन सवार भेल चलल पवन देव
पक्षी के समान चहकैत आगू बढ़लै।
बैल चढ़ि चललन एगारहो रूद्र देव
त्रिशुल-पिनाक-अजगव लेने बढ़लै।
सब देव निज-निज वाहन चढ़ि चलल
भाँति-भाँति गज, अगनित रथ बढ़लै॥43॥

भाँति-भाँति रथ पर रंग-रंग छत्र ध्वज
चमकैत अस्त्र-शस्त्र अजब सोहाय छै।
रथ के रोॅ ध्वनि आरो गज के चिग्घाड़ संग
युद्ध के नगाड़ा, कोलाहल मचि जाय छै।
देवता के गज निज छाँह के विलोकी, बूझै-
शत्रु के रोॅ गज दाँत आपनोॅ गड़ाय छै।
घड़-घड़ नाद बीच धूल आसमान छूऐ
एहनोॅ लागै कि सप्त सिन्धु हहराय छै॥44॥

चारो दिश शोर सुनि वन के रोॅ जीव-सब
अपन-अपन सब जान लेॅ केॅ भागलै।
धूल उड़ि-उड़ि जब चढ़ल आकाश पर
बादल समझि तब मोर नाचेॅ लागलै।
बादले के भ्रम जब हंस के भी भेल तब
हरसल मान सरोवर दिश भागलै।
रथ के रोॅ ध्वज बिजली जकाँ चमकि गेल
सब के भरम परतीत जकाँ लागलै॥45॥

गगन मंडल में पटल धूल भयंकर
असुर समाज के न कुछ ओरियाय छै।
ऊपर से खसि क ऊ नीचे आवी रहल छै
या नीचे से उड़ि क आकाश दिश जाय छै!
रसें-रसें घना धूल सगरो पसरि गेल
आगू-पीछू, दाँया-वाँया कुछ न बुझाय छै।
बादल आकाश के रोॅ हाथी के समान लागै
धरती के फूल जे कि बादल बुझाय छै॥46॥

दोहा -

उन्नेॅ छै तारक-असुर, झन्नेॅ तारक नाथ।
जीत रहै हर हाल में, नारायण के साथ॥8॥

भयंकर रथ पर तारका सवार भेल
भयंकर-भयंकर सेना संग लैलकै।
भयंकर नाद सुनि सागर उफनि गल
सब नदी अपनोॅ सिमान तोरी देलकै।
आगू-पीछू सगरो अमंगल सगुन भेल
गिद्ध-स्वान-काग सब जसन मनैलकै।
उनचासों मरूत जे एक्के बेर बहि गेल
दैत्य रथ के रोॅ ध्वज छतरी उड़लकै॥47॥

आगू बढ़ते ही बिल्ली काटलक राह आरू
गीदर-कुक्कुर दोनो रोदन उठैलकै।
रथ से लगल शीशा अपने चनकि गेल
तब असगुण अनुमान सब कैलके।
बादल बिना ही तब बज्जर सखेॅ लगल
रूधिर, अनल, मांस व्योम बरसैलकै।
भयंकर ध्वनि बीच दोलित भुवन भेल।
तब कुलगुरू असगुण समझैलकै॥48॥

तारक असुर के रोॅ छ.हीन रथ लागै
चलैत-फिरैत जेना सरहीन धर छै।
मुकुट के मोती चारो दिश बिखरल लागै
भाग्यलक्ष्मी के आँसू सगरो परल छै।
रथ के धूरी से आग स्वतः प्रकट भेल
ध्वज दण्ड स्याह लागै नाग चिपकल छै।
कोनो असगुण के न तनियों चितावै तौने
अभिमान जेकरा कि माथ पे चढ़ल छै॥49॥

तखने आकाशवाणी भेल- ”तारका असुर-

मिरतु तोहर अब बहुत करीब छोॅ।
तोरा पर अब सब देवता बेरूख भेल
तोरा पर क्रुद्ध हरि-ब्रह्मदेवऋ-शिव छोॅ
तोहरा आतंक से आतंकित ई देवते नेॅ
तारो से आतंकित जगत के रोॅ जीव छोॅ।
कार्तिक कुमार के तोॅ काल के समान जानोॅ
बिपरित भेल जानोॅ तोहरोॅ नसीब छोॅ“॥50॥

सोरठा -

जान अपन अवसान, तोर शत्रु शंकर सुमन।
कुछ दिन के छौ प्राण, आब मृत्यु देवी भजें॥5॥