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अंगिका रामायण / प्रथम सर्ग / भाग 10 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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हिया से लगाय धिया हाँक पारी बोलै मैना
गौरा के वियाह त एहन से न करवै।
बेसी जों रगर हिमवंत कहीं करत त
धिया लेॅ पराय कहीं डूबि-धँसि मरवै।
या त कोनो शिखर से कूदी हम जान देव
या त हम आगिन प्रकट करि जरवै।
चाहे कल सूरूज पश्चिम में उदित हुए
अपनोॅ बचन से कभी न हम टरवै॥91॥

दुलहा के देखी मैना क्रोध बस कानी-कानी
देवऋषि नारद के जे-न-से कहलकै।
संत के रोॅ सहज स्वभाव बस देवऋषि
मैना के रोॅ सब बात सहजें सहलकै।
गौरा के लिखल रहै एहने विचित्र वर
इहेॅ लेली शिव एन्होॅ रूप के धरलकै।
शिव छिकै सत्य, शिव परम सुन्दर छिकै
मैना रानी के बुझाय नारद कहलकै॥92॥

पारवती कहै कि अपन हठ छोड़ोॅ माता
विधि के लिखल कभी मेटलोॅ न जाय छै।
हमरा लिखल शिव मगन मतंग पति
हमरा अमंगलो में मंगल बुझाय छै।
जिनका वरै के लेली वर तप कैलौ हम
दुलहा बनी क वहेॅ शंकर सहाय छै।
हर जनमें में शिव आशुतोष महायोगी
हमरा से बेर-बेर रगर कराय छै॥93॥

सवैया -

नारद बोलल हे हिमवंत कि
शंभु छिका जगदीश्वर जानोॅ।
अंग भभूत रमाय रखै
यहु शंभु यथारथ के पहचानोॅ।
शंभु सनातन गौर छिका
करपूर जकाँ इनका अब मानोॅ
जाय क व्याहिय पारवती
मन में तनियो क दुराव न आनोॅ॥2॥

देवगण बैठ असगुण पे विचार कररै
आरती के दीप मैना कहिने बुझैलकै।
सूरज के दीपक दिखाना अपराध छिकै
नारद अमंगल में मंगल बतैलकै।
शिव के ललाट पर देखलकि चाँद मैना
चन्द्रमा के हुन्हि मरजाद के बचैलकै।
शिव के जटा में तब गंगा दरसन करी
कूप के रोॅ जल मैना रानी ओंधरैलकै॥94॥

भोजन करै के लेली बैठल बरात जब
मने मन देवगन परम मगन छै।
एक पाँति देवता, दोसर पाँति योगी यति
तेसर पंगत सब शिव के रोॅ गण छै।
देवगण सभ्य आरो परम शलिन लागै
तेहने शालिन सब योगी-यति गण छै।
भूत आरो प्रेत के पंगत के न बात पूछोॅ
निपट धतिंग सब नगने मगन दे॥95॥

सोरठा -

अजगुत लगै वरात, बिन सर के बिन हाथ के।
चिन्तित लगै सरात, कैसें खैतै भूत गण॥7॥

भूत के रोॅ पंगत में पत्तल परसि गेल
भूत-प्रेत बैटल छै पत्तल चिवाय केॅ।
व्यंजन परोसै वाला मन में विचार करै
कहाँ क गिरावौं हम व्यंजन के जाय केॅ।
फेरो पत्ता परसल, फेरो से चिवाय गेल
कौने समझैतै पत्ता नै छिकै ई खाय के।
मिली क सराती देवगण से जुगति पूछै
कोनो विधि भूत के जमात के सिखाय के॥96॥

बेर-बेर भूत सब पंगत के तोंरै तब
परसनिहार ही पंगत लगी जाय छै।
भाँति-भाँति व्यंजन के आगू में परसि राखै
सब खनिहार तब माँगि-माँगि खाय छै।
कोनो सबजी अेॅ मिसटान के लुझकि भागै
कोनो-कोनो सब छोड़ी पत्तल चिवाय छै।
कोनो-कोनो हाथे के बनावी क भोजन पात्र
माँगि-माँगि खाय जहाँ-तहाँ लेधराय छै॥97॥

भोजन के वेर नारी, गावै मिली-जुली गारी
कोनो नारी झुण्ड में मिठाय फेकि देलकै।
नारी के रोॅ झुण्ड में से एक-टा विरिध नारी
उधरे से पिढ़िया नचाय फेकि देलकै।
भूत-प्रेत बीच तब भगदड़ मचि गेल
एक ओझा मंतर चलाय फेकि देलकै।
भागैत भूतोॅ के तब धरि क लगौट ओझा
पकड़ी क टंगरी घुमाय फेकि देलकै॥98॥

एक दिश डायन त दोसर तरफ ओझा
दोनो से ई भूत परेशान भेॅ केॅ भागलै।
डायन के मंतर अेॅ ओझा के रोॅ बेंत देखी
अपन-अपन सब जान लेॅ केॅ भागलै।
कुछ-कुछ लूकि-छिपि, ठामे-ठाम रहि गेल
कुछ देवगण के विमान लेॅ केॅ भागलै।
कुछ खाना छोड़ी कुछ खैतें-खैतें भागी गेल
कुछ खावै-पीऐ के समान लेॅ केॅ भागलै॥99॥

जब मैना जानली कि शिव सत्य सुन्दर छै
तब शिव जी के प्रति अनुराग जागलै।
जनम-जनम से भवनी शिव एक छिक
नारद के बात तब सत्य सन लागलै।
बहुत बिलम्व से जे सत्य के समझ भेल
तब मैना रानी के रोॅ सब हठ भागलै।
फेरो सब मिली गावेॅ लगल मंगल गीत
चारो दिश मंगल उछाह मनेॅ लागलै॥100॥

दोहा -

शंकर गौर कपूर सन, चकित भेल सब लोग।
सब के अब लागे लागल, दुलहा-दुलहिन जोग॥5॥

व्याह के रोॅ मंगल मुहुरत विचारी तब
हिमवंत सब देवगण के बोलैलकै।
मैना रानी फेर से परछि क महादेव के
सादर सम्मान लानी मंडप बिठैलकै।
सब के रोॅ मन तब आनन्द से भरि गेल
महादेव परम सलौना रूप धैलकै।
सब के रोॅ शंशय के मेटी क सलौना शिव
धरी क लुभौना रूप सब के लुभैलकै॥101॥

गौरा के समान दिव्य गौर वर्ण शिव भेला
जेहॅे देखलक सब के हिया हरसलै।
सुमंगल गान करै सब धी-सवासिन त
आँगन में गगन से सुमन बरसलै।
शिव-गिरजा के भेल जब पाणिग्रहण त
मैना-हिमवंत मन-मुदित विहँसलै।
लौकिक-वैदिक दोनों रीति से वियाह भेल
जे न देखलक ई वियाह से तरसलै॥102॥

राजा हिमवंत जब करलन कन्याँदान
ममता हिलोर मारै, दोनों आँख भरलै।
माता-पिता केरोॅ आँख देखलकि भरलोॅ त
गिरिवरनन्दनि सहजें फूटि परलै।
अँचरा के कोर पोछै गिरजा के लोर तब
संग के सहेली के न धीरज ठहरलै।
विदा के रोॅ वेर पति धरम सिखावै मैना
नीक-सीख गिरजा के चित में उतरलै॥103॥

धिया के विदाई बेर हिया फाटी गेल तब
हिया से लगाय माता फूटि-फूटि कानलै।
बुद्धि कहै बेर-बेर बेटी के पराया धन
बुद्धि केरोॅ बात हिया तनियों न मानलै।
पारवती जाय ससुराल जब बसि गेल
बेटी के दरद तब हिमवंत जानलै।
गिरजा महेश जब बसल कैलाश आवी
अपनोॅ पुरानोॅ प्रीत दोनों पहचानलै॥104॥

शिव-पारवती जब व्याहि क कैलाश ऐला
तखने से चारो दिश आनन्द पसरलै।
जहाँ शिव-पारवती आनन्द विहार करै
सब देव गण के मुदित मन भरतै।
आनन्द-विहार में सहस्त्र युग बीत गेल
तब शिव-सुत खड़वदन जनमलै।
तब सब देव के मनोरथ पूरन भेल
जौने दिन तारक असुर सठ मरलै॥105॥

परम कल्याणकारी शिव के विवाह कथा
एकरा से सब-टा अमंगल नशाय छै।
एकरा से श्रद्धा आरो परम विश्वास जागै
जीवन में अपने शिवत्व आवी जाय छै।
शिव के विवाह कथा वैवाहिक वाधा काटै
एकरा से प्राणी दामपत्य सुख पाय छै।
संत के कहर, सद्ग्रंथ के कहल सच
मुद्गलपुरी’ सब जन के सुनाय छै॥106॥

सवैया -

प्रेम सँ शंभु विवाह कथा नित
पाठ करै, सुमरै अरू गावै।
शंभु विवाहक ध्यान करै अरू
वाँचि कथा जगती के सुनावै।
आवि बसै शुख शान्ति तहाँ
चित में सरधा-बिसवास जगावै।
नासय मूल अमंगल के अरू
शंभु सदैव कृपा बरसावै॥3॥

अंगिका रामायण पहिलोॅ सर्ग पूर्ण