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अंगोछिया / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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अरे चाचा!
अब तो रख दो रे यह अंगोछिया!

यह काँस की झाड़ी होकर बहनेवाली हवा को भी मालूम है
बीच खेत में खड़े बूढ़े सिमल के पेड़ को भी मालूम है
यह गाँव से होकर बहने वाली नदी
ज़मींदार का पुस्तैनी खलिहान
यह आकाश, वह जंगल
और चौधरी के पुराने बरामदे को भी मालूम है
कितनी पुरानी है यह अंगोछिया


दुनिया में कहीं किसी जगह न मिलने वाला
तुम्हारा और केवल तुम्हारे सिर्फ़
पसीने की पुराकथा है इसमें
तुम्हारे पूर्वजों की आनुवंशिकी
और तुम्हारी जन्मकुण्डली का सारा भेद है इसी में
इसी में है
तुम्हारे इतिहास की कुंजी

अभी तक भी
लटका रहे हो कन्धे पे
गुँथ रहे हो माथे पे
बाँध रहे हो पीठ में
चिथरा हो चुका यह अंगोछिया
धागा छूटते-छूटते, फटता और सड़ता हुआ
ख़त्म होगा एक दिन
और गुम नाम होगी
तुम्हारा इतिहास खोलने वाली चाबी

यह तो तुम्हारे सन्ततियों की
पुरातात्विक सम्पत्ति है
इसे थमा दो अपने ही वंशवृक्ष का
किसी पारखी हाथ में
जिस को मिले रेशे–रेशे के भीतर
तुम्हारे ख़ून–पसीने का प्राचीन रेखाचित्र

नहीं तो
रख दो किसी संग्रहालय में
कि
देखें देश के इतिहासकार
देखें मानवविज्ञानी
देखें समाजशास्त्री

देखें तुम्हारे ही पैरों को नापते बढ़े हुए
सहस्र नये पैरों ने
करें इस के अन्दर
तुम्हारे असंख्य गन्ध और कहर की शल्यक्रिया
और पसीनों के इस आदिम अवशेष से
निकालें
तुम्हारे इतिहास की सच्चाई।