भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंतिम रुदाली को आवाज़ दो / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:55, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन चौधरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहलेपन की सौंधियाई महक और आखिरीपन की गीली थकावट को याद रखते हुए
सब भूल गए इसके बीच के भीषण अंतराल को
हमारी कमजोर स्वरलहरियों पर क्या गुजरी
लहलहाती भूख नहीं थी यह जो
मोडुलर रसोई की आधुनिक चिमनी तले या
सफदरजंग फ्लाईओवर की दो ईंटों के चूल्हे पर रोटी बेलती औरत की नाभि से दो उंगल ऊपर उठ रही थी
जीवित आकृतियों का पाखंड था यह जो सदियों से सर चढ़ कर बोल रहा था
छठी इंद्रियां बिना हरकत किये
आत्मा का अल्पज्ञात रहस्य बताती चलती थीं कि
क्योंकर कुछ कहते-कहते रुक जाती रूहें
लम्बी ठंडी साँस ले,
अधखुले दरवाजों की ओट में दाँतों तले ऊँगली दबाती आत्माएँ
किस सोच में पड़ कर शिथिल हो जाती हैं
सच के पाँव मजबूत थे
वह बिना डोले बोल देता था कि हम
अपनी चल-अचल सम्पति दुपट्टे के किनारे बाँध
नंगे पाँव तपती रेत पर चल देती हैं
अपने वाष्पित आँसुओं को पीछे बिसराती हुईं
किसी पश्चिमी गर्म प्रदेश में अपने दामन पर पैबंद टांके
भरी दुपहरिया में भरोटी ढोई
नून गंठे के साथ खेत की मुंडेर पर उकड़ू बैठ टूक तोड़े हमने
होंठों पर पपड़ी जमा देने वाली सर्द हवाओं में
सीढी चढ़ाई और रपटीली गहराई बिना नापे तय की
हमें सबसे शांत मुहावरों की आड़ में सहलाया गया
हम चकित थीं
ताउम्र पानी ढो कर भी
हमारी बावड़ी सूखी की सूखी कैसे रह गयी
खुशियों की गंध को अपने भीतर बंद कर खुश हो लेतीं
बुरे वक्त को सिलबट्टे से रगड़ डालने का उपक्रम करतीं
हमारे सुकून पर जिस दिन काली बिल्ली ने गेड़ा मारा
और ये चंद खुशियाँ भी उसी रोज मारी गयीं
एक भरी-पूरी उठान वाली सुबह
नाचते-गाते शोर मचाते ढेर सारे बहे लिए आये
हमारे कानों में चंद मीठी बातें कर
चालाकी से बारीक बुनावट वाला रेशमी जाल हमे उढ़ा, बगल में मुस्तैद हो गए
वो दिन थे, और आज का दिन है
हम रोना भूले हुए हैं
जीने का अंतिम सहारा हमसे छूट गया है
कोई बख्शो हमें
अंतिम रुदाली को जरा जल्दी आवाज दो