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अंधकूपों को गगन कहते रहे / प्रेम भारद्वाज

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अन्ध कूपों को गगन कहते रहे
पत्त्थरो ही को सुमन कहते रहे

नाम लेकर धर्म का कुछ सिरफिरे
अग्निकाकाँडों को हवन कहते रहे

युगनियन्ताओं के तेवर पारखी
मरुस्थल ही को चमन कहते रहे

भाटचारी बढ़ गई कुछ इस कदर
बदशक्ल को गुलबदन कहते रहे

मछलियों के हाट के माहौल को
आस्थाओं का सदन कहते रहे

नागरी परिवेश ओढ़े शक्ल को
पावन पहाड़ी बाँकपन कहते रहे

ग्रस्त होकर जटिल मायाजाल में
आत्मा को बस बदन कहते रहे

जेब भरी देखकर यजमान की
ठीक है बिल्कुल लगन कहते रहे

जो बिठाए थे गए जबरन यहाँ
प्रेम की लाई अगन कहते रहे