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अकेले की नाव- 7 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
     बड़ी उत्कंठा के साथ
     मैंने अपनी नाव
     तुम्हारी तरफ मोड़ ली थी
     पर तुम तक पहॅुचने के पूर्व ही
     तुम्हारे आंगन के द्वार पर
     टँगी तख्तियों ने
     दूर से ही मुझे टोका.

     मैं ठिठका, उन्हें घूरा
     और कुछ सोचना चाहा
     कि किसी अंतर्ध्वनि ने मुझे विरत किया
     मुझे अपनी ही तरफ
     घूरने का संकेत दिया.
     तुम्हारे सिंहद्वार पर पहॅुचने के पूर्व
     मैं आज भी
     अपने को घूर रहा हूँ
     और इस घूरने के क्रम में
     ढेर सारे प्रश्न
     मुझे व्यथित किए दे रहे हैं.

     अपनी यात्रा के दौरान
     मैं अभिभूत था
     तुम्हारे आकर्षक प्रवचन
     मेरी चेतना की गाँठें खोलते से लगते थे
     कई गुत्थियों के तुम्हारे सुझाए तर्क
       
     मेंरे अपने तर्कों के प्रमाण से लगते थे
     आज भी इनमें बदलाव नहीं आया है
     किंतु मैं आज अभिभूत नहीं हूँ
     आज मेरे पल
     मुझे ठेलते से हैं तुमसे पूछने को
     कि तुमने
     अपने तक पहुँचने के लिए
     निर्भार होने की शर्त क्यो लगाई
     रामकृष्ण ने तो यह शर्त
     विवेकानंद पर नहीं थोपी
     वह तो प्रश्नों का भार लिए ही
     पहुँचे थे उनके पास.

     मित्र ! तुम मुझमें
     अपना दीया आप होने की
     चेतना जगाते हो
     पर अपने दीए की लौ तक आने को
     निर्भार होने की शर्त लगाते हो
     मैं सच कहूँ तो इस क्षण
     प्रश्नों का भार लिए ही
     उद्विग्न फिर रहा हूँ मैं.

     तुम तक पहुँचने के लिए
     यह जो मैं उत्कंठ हूँ
     यह भी एक भार ही है
     ये भार मुझसे अलग नहीं हो सकते
     तुम तो प्रश्नों की खेती करते हो
     मैं यहाँ तुम्हारे बहुत निकट

  
       भूमि पर पसरा हुआ हूँ
     आकुंचित विकुंचित हो रहा हूँ
     कर सको तो करो खेती
     वैसे अपने अंतर के तंतुओं में
     इन प्रश्नों की राहें ढॅूढ़ रहा हूँ मैं
     मेरे दीए का प्रकाश
     बहुत मद्धिम है आज
     पर जितना ही अंदर धॅस रहा हूँ
     प्रकाश की तीक्ष्णता में
     कुछ फर्क आता-सा महसूस होता है
     शायद कल बहुत फर्क आ जाए.