भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:20, 5 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यंत कुमार |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार }} [[Ca...)
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन
मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए
उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना
ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं
सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए.