भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगर बनोॅ तेॅ / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:50, 9 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रप्रकाश जगप्रिय |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
फूल बनोॅ तोंय जूही रं
नै काँटोॅ, नै सूई रं।
पानी रं तोंय हुवोॅ तरल
विष बनियोॅ नै बनोॅ गरल।
मन दूधे रं साफ रहौं
वहाँ नै कोय्यो पाप रहौं।
गुरुजनोॅ के ला आशीष
सदा झुकेले रहियो शीश।
पोथी खल्ली साथे-साथ
यश पैवा तोंय हाथे हाथ।