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अध्याय १८ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥१८- १॥

अर्जुन उवाच
हे अंतर्यामी महाबाहो !
वासुदेव कृष्ण! नत हूँ तोहे.
संन्यास, त्याग कौ तत्व पृथक
करि, मरम कहौ माधव मोहे.

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥१८- २॥

श्री भगवानुवाच
बहु ज्ञानी कर्म सकाम त्याग
कौ , करमन सों संन्यास कहैं,
बहु अन्य विवेकी कर्म सबहिं,
कौ त्यागन में विश्वास करैं.

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥१८- ३॥

सब करम त्याज्य है दोष युक्त,
कुछ ऐसो मनीषी कथित करैं.
तप, दान, यज्ञ तौ त्याज्य नाहीं,
बहु ज्ञानी यहि मत व्यक्त करैं.

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥१८- ४॥

जो विषय त्याज्य , तेहि सुन अर्जु!
आपुनि मत व्यक्त करौं तोहे.
हैं त्रिविध त्याग, सत, राजस, तम
पुरुश्रेष्ठ कहहूँ सगरौ तोहे.

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥१८- ५॥

तप, दान, यज्ञ तौ त्याज्य नाहीं,
बिनु संशय, हैं कर्त्तव्य यही.
तप दान यज्ञ सों ही ज्ञानी
पावन होवत अथ कृष्ण कही.

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥१८- ६॥

तप, दान, यज्ञ हो राग बिना
फल चाह को त्यागे विरागी मना.
कर्त्तव्य नीति मय श्रेय जना,
हे पार्थ मेरौ मत ऐसो बना.

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥१८- ७॥

जस भाग्य नियंता नियत कियौ
तस कर्म नियत कर्त्तव्य बन्यौ.
यदि मोह सों त्याग करयो ताको,
तस त्याग कौ तामस त्याग कहयौ

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥१८- ८॥

दुःख रूप ही होत करम सगरे,
यहि भय सों त्यागत करमन कौ.
अस राजस त्याग सों त्यागी कौ,
फल मिलै नैकु न अस जन कौ.

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥१८- ९॥

फल चाह हीन और राग बिना,
विधि शास्त्र नियत जिन करम कियौ,
अस त्याग ही सात्विक त्याग सत्य,
कर्त्तव्य समझ बस कर्म कियौ.

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥१८- १०॥

जिन शुभ करमन आसक्ति नाहीं
दुष्करमन माहीं विरक्ति नाहीं.
ज्ञानी तिन संशय हीन वही,
जन त्यागी, विषेशन होत मही.

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥१८- ११॥

हे अर्जुन! जेहि जन देह धरयो,
निश्चय तेहि करम करयो सों करयो.
सत अरथन त्यागी होत वही
जिन करम करयो, फल करम तजयो.

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥१८- १२॥

इष्ट-अनिष्ट तौ करमन कौ फल,
पावत नित्य सकामी जना जू.
फल चिंता नैकहूँ होत नहीं ,
केहि कालहिं जो निष्कामी जना जू.

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥१८- १३॥

हैं करम सिद्धि के पांच हेतु
जिन सांख्य सिद्धांत उचारौ है,
तू सुनि मोसों हे महाबाहों,
प्रय मित्र, ये कृष्ण तुम्हारौ है.

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥१८- १४॥

इनमें आधार ,करण, कर्ता,
बहु करम प्रयास विविध विधि के.
यहि पंचम हेतु ही दैव योग.
हैं करम विधान दयानिधि के.

शरीरवाङ्‌मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥१८- १५॥

तन, वाणी, मन सों करम करै,
अनुसार विधि या विरुद्ध करै.
हर करम मूल में मानुष के,
कारण यहि पांच, निरुद्ध करै.

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥१८- १६॥

जो कहत आतमा कर्ता है,
तिन मूढ़ मता, बिनु ज्ञानन है,
कब देखि सकै अल्पज्ञ जना,
को कर्ता और को कारन है.

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८- १७॥

जिन कर्तापन को त्याग दियौ,
और बुद्धि भी नैकहूँ लिप्त नहीं.
तिन मारि के सगरे लोकन भी,
नाहीं पाप सों नैकहूँ लिप्त कहीं.

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥१८- १८॥

यहि ज्ञेय, ज्ञान, ज्ञाता तीनहूँ,
ही होत है प्रेरक करमन के,
अ क्रिया, करण, कर्ता तीनहूँ,
के योग, मूल हैं करमन के.

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥१८- १९॥

गुण भेद सों, कर्ता ज्ञान करम,
सब भांति त्रिविध बताय रहै,
अथ सांख्य शास्त्र में कथित भयो,
यहि कृष्ण भी तोहे सुनाय रहै.

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥१८- २०॥

जेहि ज्ञान सों नर सब प्रानिन में,
अविनाशी ब्रह्म कौ देखत है,
बिनु भाग विभाग को भाव धरे,
यहि ज्ञान कौ सात्विक समुझत है.

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥१८- २१॥

जेहि ज्ञान सों सगरे प्रानिन में,
नर भाव विविधता जागत है,
यहि ज्ञान कौ राजस जान सखे,
अस भाव कौ राजस मानत हैं.

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥१८- २२॥

जन लिप्त रह्यौ जो शरीरन में,
आतमा जानि रहयो तन को.
यहि तामस ज्ञान बृथा बिनु सार,
तम के पथ लई जावत जन को.

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥१८- २३॥

फल करम तजै, करतापन भी,
बिनु राग द्वेष के काम कियौ.
विधि शास्त्र नियत अस करमन कौ,
तौ सात्विक करम कौ नाम दियौ.

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥१८- २४॥

श्रम युक्त करम, फल चाह करै,
हिय, करमन को अभिमान धरै.
अस करम तो राजस होत पार्थ,
अभिमानी करम सकाम करै.

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥१८- २५॥

जेहि करमन हिंसा, हानि और,
परिणाम सामर्थ्य विचार नाहीं.
बिनु ज्ञान कियौ है आदि जिन्हें ,
तामस, सुख आधार नाहीं.

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥१८- २६॥

हों कारज सिद्ध या कबहूँ ना,
मन हर्ष शोक हो तबहूँ ना.
आसक्ति, अहम् जेहि नैकहूँ ना.
सात्विक कर्ता, कहै तिन कृष्णा!

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥१८- २७॥

मन हर्ष शोक सों लिप्त रहै,
फल करमन चित्त लुभाय रहै,
लोभी हिंसक शुचिता विहीन,
तेहि राजस, कृष्ण बताय रहै.

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥१८- २८॥

आलस्य, अहम्, मन शोक रहे,
लोभी, हिंसक, शठ, ज्ञान नाहीं ,
अस करता, तामस जात कहे,
जिनके मन मोहित, चैन नाहीं.

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥१८- २९॥

सुनि वीर धनञ्जय भांति त्रिविध,
की बुद्धि धारणा जात कही.
सब भाग विभाग कहहूँ तोसों,
यहि तत्व महत अति पार्थ! मही.

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥१८- ३०॥

बहु बंधन, मोक्ष, अभय और भय,
प्रवृति, निवृति कौ तत्त्वन सों.
जिन जानि लियौ सात्विक तिनकी,
और बुद्धि सचेत है, ज्ञानन सों.

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥१८- ३१॥

जेहि बुद्धिन धर्म अधरमन कौ,
ना करम अकरमन ज्ञान रहै.
तस बुद्धिन राजस बुद्धि कहैं,
कर्तव्यं कौ नाहीं भान रहै.

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥१८- ३२॥

जब तामस गुण बढ़ी जावत हैं,
 अधर्म कौ धरम बतावत हैं .
तब अरथ कौ नित्य अनर्थ करैं,
अस बुद्धि को तामस मानत है.

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥१८- ३३॥

जिन ध्यान के योग सों चिन्मय में,
मन इन्द्रिन प्रान कौ चिन्मय में.
एकमेव धारणा धारि लियौ,
हे पार्थ! है सात्विक अर्थं में.

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥१८- ३४॥

धरि चाह हिया फल करमन की,
आसक्ति मना जिन वृति रह्यो,
सुनि पार्थ! महाबाहो मोसों,
अस ारणा राजस जात कह्यो.

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥१८- ३५॥

भय, शोक, अहम्, निद्रा, चिंता,
मद और विषाद दुर्बुद्धि जना .
अस धरत धारणा तामस सों,
सुनि अर्जुन! मोरे स्नेही मना.

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥१८- ३६॥

सुन अर्जुन! सब सुख त्रिविध भांति,
  के होत हैं कृष्ण बताय रहे.
जेहि , ध्यान भजन अभ्यास रमै,
तिनके दुःख सगरे नसाय रहे.

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥१८- ३७॥

विष तुल्य लगत सब आदि में,
परिनामहिं होवत अमृत सों.
अथ भक्ति भाव जेहि सुख उपजत,
सुख सात्विक केशव के मत सों.

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥१८- ३८॥

सुख इन्द्रिन विषयन योगन सों,
अमृत सम भोगन माहीं लगै,
परिणाम विषम विष होत वही,
सुख राजस, जन भरमाय ठगै.

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥१८- ३९॥

मोहित कर, आतमा मोह करै,
परिणाम और भोगन माहीं,
आलस्य, प्रमादन, निद्रा,
भरे तामस सुख प्रानिन माहीं.

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥१८- ४०॥

दिवि लोक न ही यहि धरती पर,
और एकहूँ नाहीं, जो देवन में.
इन तीनहूँ गुणन विहीन भयौ,
यही मूल प्रकृति प्रति प्राणिन में.