भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनकही / शरद कोकास

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:43, 10 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह कहता था
वह सुनती थी
जारी था एक खेल
कहने सुनने का

खेल में थी दो पर्चियाँ
एक में लिखा था ‘कहो’
एक में लिखा था ‘सुनो’

अब यह नियति थी
या महज़ संयोग
उसके हाथ लगती रही
वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’
वह सुनती रही

उसने सुने आदेश
उसने सुने उपदेश
बन्दिशें उसके लिए थीं
उसके लिए थीं वर्जनाएँ
वह जानती थी
कहना सुनना नहीं हैं
केवल हिंदी की क्रियाएँ

राजा ने कहा ज़हर पियो
वह मीरा हो गई
ऋषि ने कहा पत्थर बनो
वह अहिल्या हो गई
प्रभु ने कहा
घर से निकल जाओ
वह सीता हो गई
चिता से निकली चीख
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी
वह सती हो गई

घुटती रही उसकी फरियाद
अटके रहे उसके शब्द
सिले रहे उसके होंठ
रुन्धा रहा उसका गला

उसके हाथ कभी नहीं लगी
वह पर्ची
जिस पर लिखा था - 'कहो'

('नवभारत' में 1995 में तथा 'वागर्थ' में 1998 में प्रकाशित)