भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना जल / सुधीर मोता

Kavita Kosh से
198.190.230.60 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 03:12, 8 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर मोता }} <poem>फिर मस्तक पर आया यह अपना ही जल अप...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर मस्तक पर आया
यह अपना ही जल

अपने श्रम से हो प्रसन्न
यह दिन भी सुख से बीता
यह बहलाना अपने को
अपने से अपना ही छल

पहाड़ काट पत्थर ढोकर
मार्ग बनाया चल निकले
जो भोगा था भूल गये
सपने-सा अपना ही कल

सब हंसते थे हंसते हैं
उनकी अपनी राह अलग
वे झुंड के बहुमत में
पर विजयी एक अपना ही दल

भीतर अपने वह लाल रंग
नित हमसे खेल रहा होली
वह भीतर हम बाहर दौड़ें
तिलक भाल अपना ही जल।