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अपनी पलकों पर किसी शाम सजा लो मुझको / 'हफ़ीज़' बनारसी
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अपनी पलकों पर किसी शाम सजा लो मुझको
मैं अगर रूठ गया हूँ तो मना लो मुझको
सोच के गहरे समंदर से निकालो मुझको
दम घुटा जाए है अब कोई बचा लो मुझको
मैं अगर फूल नहीं हूँ तो शरारा भी नहीं
अपने दामन में बिला खौफ छुपा लो मुझको
अब तो ले दे के तुम्हीं एक सहारा हो मेरा
छोड़ के जाओ न यादों के उजालो मुझको
लब पर आया जो कोई हर्फ़े-गिला तो कहना
शमा की तरह सरे-बज़्म जला लो मुझको
कल यही वक़्त कहीं मेरा तलबगार न हो
अहदे-हाज़िर की अमानत हूँ संभालो मुझको
आऊँ नीचे तो सलामत न रहे मेरा वजूद
इतना ऊँचा न मेरे यारो उछालो मुझको
शिकवा-ए–दर्द ही करते रहे हम लोग 'हफ़ीज़'
दर्द कहता रहा संगीत में ढालो मुझको