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अपनी बात / रामफल चहल

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बचपन ठेठ ग्रामीण माहौल मं बीत्या अर खूब पीहलअ् पीच्छू लेसबे (लसोड़े) खाटे-मीठे बेर, कचरी, बरबंठी, झींझ (जांटी की पक्की फलियां) , चणे की टाट (छोलिए) होअ्ले, भुने हुए बाजरे की सिरटी, कच्ची इमली, गूल्लर, जमोवे (देसी जामुण) अर ना बेरा के-के खाया जिनका ईब सुवाद भी दिमाग पर घणा जोर देण पै याद आवै सै। पर इन सबतै न्यारा एक सुवाद जो आज तक नहीं भूल्या सै वो सै पिलपोट्टण का जिसका जायका हरफां मं लिख पाणा नामुमकिन सै।

म्हारे गितवाड़ के घेर की कूण अर बरानी खेत, खेत म्हं बणे कोठड़े अर खेत म्हं छोड्डी हुई जोहड़ी (छोटा सा तालाब) के चारूं तरफ खड़े झाड़ बोझड़या के बीच जामे पिलपोट्टण के पौधे दिखतीं एं एक पैनी नजर उसके फलां न ढूंढण लागती अर हरे पौधे पै खाखी रंग के लट्टुनुमा पुस्तड़े के भीतर पीले नारंगी गोल फल दिखतें ए खाण न मन ललचा उठता अर फल तोड़तें एं पुस्तड़ा (लिफाफेनुमा कवर) हटा कै दूर फैंक दिया और कच्चरअ् की आवाज करते पिलपोट्टण न बीजां सुधां खा जाया करते। ना धोवण का झंझट ना पूंझण की जरूरत अर सुवाद सबतैं न्यारा कुछ मीट्ठा कुछ खाट्टा अर कुछ खारा।

आज जब गाम मं जाण का मौका पड़ै सै तो उन गितवाड़ां मं, खेत झाड़आ मं, अर बाड़यां मं, छक्कअ् टोह ल्यूं सूं पर पिलपोट्टण नहीं दिखती। कुछ साल पहल्यां जब कविता लिखण का चस्का लाग्या तो अपणे आप दिल मं भरे ख्याल कागजां पर उतरते चले गए अर आइस्ता-आइस्ता इस किताब का खाका त्यार होग्या। घणखरी कवितायां मं कुछ न कुछ संदेश जरूर सै अर ज्यादातर मं छोरियां की घटती गिणती पर चिन्ता अपणे आप उजागर हुई सै। फेर मन मं विचार आया के न्यून त सबतै सुरक्षित पुस्तड़े मं बन्द फल पिलपोट्टण कम होता चल्या गया अर न्यूनै गुदड़े मं लिपटी बेटी।

पिलपोट्टण के बारे मं इब बेरा पाड़या तो यो नाम और कसूता मन मं जंच गया क्यूंकै परपोटिका ( पिलपोट्टण) के पत्यां के रस मं सरसों का तेल मिला कै कान मं धालणं तै बहरापण दूर होज्या सै। इसका फल एक खतरनाक रति रोग गनेरिया नै दूर करै सै अर हजारां साल तै पीढ़ी दर पीढ़ी खाए जाण आल़े इस सोलेनेसिया फैमिली (टमाटर प्रजातिय) के फल़ मं जिवाणु अर फफूंदनाशक गजब की ताकत हो सै। आज गर्भ मं मारी जावण आल़ी छोरियां की पुकार सुनण ताहीं कान्ना का बहरापण दूर करना जरूरी सै।

इब न्यूं तो फैसला आप पढ़ण आल़े ए करोगे के इस किताब का नाम किसा लाग्या पर मेरी समझ मं सब त आच्छा योहे नाम सूझया ‘पिलपोट्टण’। नई पीढी के बाल़कां म्हां ते बेरा ना किसे नै पिलपोट्टण’ खाई सै अक ना, पर मेरी पीढी के लोगां नै पिलपोट्टण’ बी खूब खाई सै अर कहावत बी खूब सुणी सै ’बाप कै बेटी गूद्दड़ लपेटी’ इब ना बाप बेटी पैदा करणा चांहवता अर ना बेटी गूद्दड़ मं लिपटी रह्या चांहवती

इब ना रहे खटोले ना रहे गुदडे़
ना रही पिलपोट्टण ना रहे पुस्तड़े
धरती पै बढ़ता जा रह्या पाप
इब कुछ तो सोचो बेटी के बाप

मैं स्वर्गीय श्री रघुबीर सिंह मथाना का एहसानबंद हूं जिन्होंने मुझे अपने साथ कवि गोष्ठियों में कविता पढ़ने के लिए प्रेरित किया। स्व. श्रीयुत श्री वर्धन कपिल ने मुझे हमेशा नई कविताएं ठेठ देहाती परिवेश पर लिखने के लिए प्रेरित किया तथा हरियाणवी बोली में रची गई इन कविताओं को कई-कई बार सुना। डा. लक्षमण सिंह ने भी इन रचनाओं को ध्यान से सुना तथा कवि गोष्ठियों में पढ़ने का अवसर दिया। श्रद्धेय डा. सुधीर शर्मा जो मेरे गुरू तथा मेरे गुरू डा. आर.एस. वालदिया के भी गुरू हैं उन्होनें इन कविताओं को गम्भीरता पूर्वक सुना हमेशा प्रोत्साहित किया। अनुज तुल्य श्री जगबीर राठी व श्री ओम प्रकाश कादियान ने भी अपना सहयोग इन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने के लिए दिया जिसके लिए मैं इन सभी अत्यंत आभारी हूं। श्री मेम पाल द्वारा दिए गए सहयोग के बिना इनका पुस्तक रूप में आना कठिन था इस लिए मैं इनका भी आभार व्यक्त करता हूं। मेरी सुपुत्री अंजलि मेरी इन कविताओं की प्रथम श्रोता रही हैं तथा पुत्र मनदीप ने इनमें से कुछ कविताओं को युवा समारोहों में प्रस्तुत किया किया है इसलिए वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। अन्य उन सभी महानुभावों को साधुवाद देता हूं जिन्होंने किसी भी प्रकार से मेरी मदद की है।