भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने ही इर्द-गिर्द / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:50, 19 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने ही इर्द-गिर्द
हर कहीं नहीं ।

नीचे से ऊपर तक
दूब गई काँप
झाड़-पूँछ पर खड़ा हुआ
काला-साँप
षटमचिया
बियफइया
करके भी कुछ न किया
रह गए
वहीं के
वहीं ।

बाँसों के काग़ज़ पर
         रोज़ का हिसाब
छूट गई बिस्तर पर
         धूप की क़िताब
साखू का पेड़ खड़ा
         पड़ा पेसोपेश में
भूलकर चला आया
         नागों के देश में
अबसे गर लिखना, तो
         पता हो सही ।