भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने होने की अर्ज़ानी ख़त्म हुई / नज़र जावेद

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:29, 8 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़र जावेद }} {{KKCatGhazal}} <poem> अपने होने की...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने होने की अर्ज़ानी ख़त्म हुई
मुश्किल से ये तन आसानी ख़त्म हुई

तुझ को क्या मालूम हमारी बीनाई
कैसे हो कर पानी पानी ख़त्म हुई

बहता है चुप-चाप बिछड़ कर चोटी से
दरिया की पुर-शोर रवानी ख़त्म हुई

मिट्टी की आवाज़ सुनी जब मिट्टी ने
साँसों की सब खींचा-तानी ख़त्म हुई

दिन पर सारे मौसम बीत गए ‘जावेद’
यानी ख़ुश्बू-दार कहानी ख़त्म हुई