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अब केवल लपटों से अपना / कृष्ण मुरारी पहारिया

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अब केवल लपटों से अपना
मिलना और बिछड़ना है
पीड़ा हो या मधुर प्रेम की
नोक ह्रदय में गड़ना है

जैसी बोयी बेल अभी तक
वैसी फलियाँ काटूँगा
अपने अनुभव का गंगाजल
हर परिचित को बाटूंगा
अब तक अपनी उमर खपायी
जीने के संघर्षों में
होना है जाने क्या आगे
आने वाले वर्षों में

अब औरों से नहीं जगत में ,
अपने मन से लड़ना है

अब किसका हिसाब चुकता
करना है जाने से पहले
क्या करना है धन या जन का
कैसे नहले पर दहले
छूट गयी वे दाँव-पेच की
हार जीत वाली घातें
बस थोड़ी सी शेष रह गयी
कहने सुनने की बातें

अब क्या सही गलत के झगड़े
किसके पीछे अड़ना है