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अब न रावण की कृपा का भार ढोना चाहता हूँ / आलोक यादव

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अब न रावण की कृपा का भार ढोना चाहता हूँ
आ भी जाओ राम मैं मारीच होना चाहता हूँ

थक चुका हूँ, और कब तक ये दुआ करता रहूँ मैं
एक कांधा कर अता मौला कि रोना चाहता हूँ

तुम कि पंछी हो उड़ो आकाश में जिस ओर चाहो
कब तुम्हारी राह की दीवार होना चाहता हूँ

है हक़ीक़त से तुम्हारी आशनाई ख़ूब लेकिन
मैं तुम्हारी आँख में कुछ ख़्वाब बोना चाहता हूँ

आशिक़ों के आंसुओं से था जो तर दामन ग़ज़ल का
अश्क से मज़लूम के उसको भिगोना चाहता हूँ

जिनके हाथों में किताबों की जगह औज़ार देखे
उनकी आँखों में कोई सपना सलोना चाहता हूँ

है क़लम तलवार से भी तेज़तर ‘आलोक’ तो फिर
मैं किसी मजबूर की शमशीर होना चाहता हूँ

अप्रैल 2015
आशनाई – परिचय, मज़लूम - जिस पर ज़ुल्म हुआ हो, शमशीर - तलवार
प्रकाशित - कादम्बिनी (मासिक) जुलाई 2015 नई दिल्ली