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अभिलाषा / आरती 'लोकेश'

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मेरी अभिलाषा मैं अपने, शब्दों में घुल जाऊँ,
काव्यमय कर के स्व तन को, सुर में बँधती जाऊँ।
अपने उर को गला के कर दूँ, कोई कथा अनजानी,
या अपनी वाणी को कर दूँ, एक अमिट कहानी।

कतरा-कतरा वर्ण झरें, आँखों के गोल कटोरे,
अक्षर-अक्षर हों हवा घुले, होठों से हों बटोरे।
शब्द मेरी पहचान बने, चेहरा मैं बदल भी आऊँ,
उपन्यास मेरी हर साँस रचे, मैं उसमें रच बस जाऊँ।

कपोल हया का ग्रंथ बने, मस्तक जय अभिमानी,
कर्ण मेरे की बन समीक्षा, भय मिटे घटे अज्ञानी।
पाँव मेरे लिख डालें अकथ, सुनहरे यात्रा संस्मरण,
उँगलियों की बने तूलिका, अचीह्ने प्रकृति चित्रण।

कण-कण में रम जाऊँ, बन कोई इतिहास पुराना,
स्मृतियों में जम जाऊँ यूँ, भूले न नया ज़माना।
भाव यही है राग यही कि, देह खत्म हो जाए,
फिर भी मेरे रेशे-रेशे, इस जग में ही रह जाए।