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अरे मन, तू कछु सोच-विचार / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 (राग कौसिया-ताल कहरवा)
 
 अरे मन, तू कछु सोच-विचार।
 झूठौ जग साँचौ करि मान्यौ, भूल्यो फिरत गँवार॥
 मृग-जिमि भूल्यो देखि असत जल, मरु धरनी बिस्तार।
 सून्याकास तिरवरा दीखत, मिथ्या नेत्र-विकार॥
 रसरी देखि सरप जिमि मान्यो, भय-बस रह्यो पुकार।
 सीप माहिं ज्यों भयो रौप्य-भ्रम, तिमि मिथ्या संसार॥
 स्वप्न-दृस्य साँचे करि मानत, नहिं कछु तिन महँ सार।
 तिमि यह जग मिथ्या ही भासत, प्रकृति-जनित खिलवार॥
 जो यातें उद्धार चहै तो, हरिमय जगत निहार।
 मायापति की सरन गहे तें, होवै तब निस्तार॥