भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अलफिराक (जुदाई) / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:59, 19 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |संग्रह=नज़ीर ग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब से तुमको ले गया है ये फलक अज़लम कहीं।
जी तरसता है कहीं और चश्म है पुरनम कहीं॥
हम पे जो गुजरा है वह गुजरा किसी पर ग़म कहीं।
नै तसल्ली है न दिल को चैन है इकदम कहीं॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

तुम वहाँ बैठे हो हम यां हिज्र के हाथों ख़राब।
न तो दिन को भूख है न रात को आता है ख़्वाब॥
बेक़रारी, यादगारी, इन्तज़ारी, इज़्तराब।
क्या कहें तुम बिन पड़ा है हम पे अब कैसा अजाब॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

हर घड़ी आँसू बहाना दीदए खूँबार से।
रात दिन सर को पटकना हरदरो दीवार से॥
आहो नाला ख़ींचना हरदम दिले बीमार से।
है बुरा अहवाल अब तो हिज्र के आज़ार से॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

याद आती है तुम्हारी उल्फतों की जब कि चाह।
दिल के टुकड़े होते हैं आँसू बहे हैं ख़्वाहमख़ाह॥
पावों में ताकत, न तन में ज़ोर न मालूम राह।
क्या ग़जब है, क्यों करें, कुछ बन नहीं आती है राह॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

न किसी से मेहरो उल्फत नै किसी से प्यार है।
नै रफीक अपना कोई और नै कोई ग़म ख़्वार है॥
दिल इधर सीने में तड़पे जी उधर बीमार है।
क्या कहें अब तो बहुत मिट्टी हमारी ख़्वार है।
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

घर में जी बहले, न बाहर अन्जुमन में दिल लगे।
नै खुश आवे सैर, नै सर्वो समन में दिल लगे॥
नै बहारों में, न सेहरा में, न बन में दिल लगे।
अब तो तुम बिन नै गुलिस्ताँ नै चमन में दिल लगे॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

पर नहीं, उड़कर तुम्हारे पास जो आ जाइये।
जी ही जी में कब तलक खूने जिगर को खाइए॥
चश्मेतर और दाग़ सीने के किसे दिखलाइये।
दिल समझता ही नहीं क्योंकर इसे समझाए॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

दम बदम भरते हैं ठंडी साँस बे दिल की तरह।
नाल ओ फरियाद हैं पर आन घायल की तरह॥
सर पटकना और तड़ना रात दिन दिल की तरह।
ख़ाको खूँ में लोटते है अब तो बिस्मिल की तरह॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

अब जो अपने हाल पर हम खूब करते हैं निगाह।
हर घड़ी मिस्ले ‘नज़ीर’ इस ग़म से है हालत तबाह॥
है जो कुछ जुल्मो सितम हम पर, कहें क्या तुमसे आह।
बिन मुए अब तो ‘नज़ीर’ आता नहीं हरगिज़ निबाह॥
छूट जावें ग़म के हाथों से जो निकले दम कहीं।
खा़क ऐसी ज़िन्दगी पर तुम कहीं और हम कहीं॥

शब्दार्थ
<references/>