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अवकाश पाये शिक्षक / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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शाम ढ़लते ही लौट आते हैं हारिल पंछी
चोंच में तिनका डाले
बधार से लौट आते हैं पखेरू
लौटते हैं लोग खेतों से काम निपटाकर
अवकाश पाये शिक्षक
लौट आते हैं अपने घरों में
गहरी उदासीनता के साथ
 उनकी उदासीनता में
शामिल होती हैं विनम्रता की लहरें
विनम्रता के साथ प्रार्थनाएँ
प्रार्थनाओं के साथ उमंगती आशाएँ
जिसमें छिपी होती हैं पुरानी यादें
सहकार्मियों के साथ बीते अनगिन दिन
छात्रों को दिये स्नेहिल स्पर्श
पूरे समय का काफिला होता है उनके साथ
अवकाश पाये शिक्षक करते हैं कामनाएँ
किय विशाल पोखरे जैसे उनके विद्यालय में
उगते रहें श्वेत कमल, नीलोत्पल, नील कुसुम
जिसमें ज्ञान के भौरें करते रहें गुंजार
पूरा इलाका हो उनके सुगंधों से आच्छादित
 अवकाश पाये शिक्षक
लौटना चाहते हैं अपने शुरू के दिनों में
वे खेलना चाहते हैं बचपन के खेल
वे फिर से लिखना चाहते हैं खड़िया से बारहखड़ी
वे बच्चों की तरह परखना चाहते हैं
शिक्षा की गुणवत्ता का रहस्य
अवकाश पा चुके शिक्षक
उमंगो से कबरेज होकर
करना चाहते हैं बुकानन की तरह यात्राएँ
वे जाना चाहते हैं धरकंधा
देखना चाहते हैं एक मुस्लिम दर्जी दरियादास को
कि वह एकांत में कैसे लिखता है अपनी कविताएँ
उसके आध्यात्मिक रहस्य को वे छू लेना चाहते हैं
वे कर्नल टांड जैसा घूमना चाहते हैं
‘राजपुताना’ में। जहाँ एक भक्तिमय राज कन्या मीराबाई
परमेश्वर को ही पति मानकर करती है नृत्य
उसके गीतों के दोशाले को ओढ़ना चाहते हैं वे
अवकाश पाये शिक्षक को अभी करने हैं ढेर सारे काम
उन्हें फेंकनी हैं ‘टॉर्च’ की तरह ज्ञान की रोशनी, जो चीर दे समय के अंयेरे को!