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आँखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल / वर्षा सिंह

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आँखों में झलकता था सपनों का हरा जंगल ।
ख़ामोश वो मौसम था देता था सदा जंगल ।

मैं बन के परिंदा जब शाखों पे चहकती थी
छूता था मेरी पलकें ख़्वाबों से भरा जंगल ।

ख़ुदगर्ज़ इरादों से बच भी न कोई पाया
जब आग बनी दुनिया धू-धू वो जला जंगल ।

कहते हां कि ख़ुशबू भी जंगल में ही रहती थी
ख़ुशबू की कथाओं में मिलता है घना जंगल ।

रंगों के जहाँ झरने, चाहत के खजाने हों
‘वर्षा’ को उगाना है, फिर से वो नया जंगल ।