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आग / सुभाष शर्मा

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मैंने आगे के बारे में
माँ से ही सीखा बचपन में
घर के आँगन में
माँ माचिस की तीली
से नहीं जलाती चूल्हा,
बस जिलाए रहतीं है आग
रोज बोरसी में
कंडे में दबाकर राख के साथ
और धीरे-धीरे/मगर हर दम
कंडे में गर्मी रहती है,
जीने की हरकत रहती है
माँ के आँचल की तरह ।
जिस दिन घर की आग
पिछवाड़े के 'ओद' कंडे में
नहीं पकड़ती,
धूँ-धूँ करके बुझनेवाली होती है,
माँ दुकान से माचिस नहीं लाती
बल्कि पड़ोसिन के यहाँ से
कुछ चिन्गारियाँ अपने कंडे पर
उठा लाती है
और गृहस्थी के जंजाल से अपना मन
'आन' कर आती है
अपने और पड़ोसिन के
दुःख-दर्द का विनिमय करके ।

माँ जानती है –
आग लकड़ी में नहीं,
मशीन में नहीं,
बारूद में नहीं,
माचिस में नहीं
बल्कि रहती है आदमी के जेहन में,
सिर से सीने में
पेट से पाँवों में ।
इसीलिए माँ कहती है –
आग खोजने शहरों में नहीं,
गाँवों में जाओ
खजाने पर नहीं,
चूल्हे-भट्ठियों पर जाओ
महलों में नहीं,
झोपड़-पट्टियों में जाओ
और थोड़ा दम मारके
पानी में भी आग लगाओ ।
मैंने माँ को
आँसुओं से फूँक-फूँक
बुझती-सुलगती
लकड़ी या कंडे में
जान डालकर
आग पकड़ाकर ही
दम लेते देखा है
क्योंकि आग और पेट का
भाई-बहन का रिश्ता है
एक के रोने पर
दूसरा बिलखता है ।

मेरे जन्मने पर
जब माँ ने मुझे सात दिन तक
'सौरी' में रखा था,
तो दरवाजे के पास अपनी कोख से
थोड़ी आग भी सुलगा दी थी
जिससे मेरा जेहन गरम रहे,
मुझे देखने वाले गरम रहें
इसीलिए जब मेरे घर की आग
ठंडी होने लगती है,
मैं अपने अंदर की कुछ चिन्गारियाँ
कंडी में सुलगा देता हूँ
माँ की विरासत जीवित रखता हूँ ।