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आज़ादी/ सजीव सारथी

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उस आधी रात को,
एक जगी हुई कॉम ने,
उतार फेंकी गुलामी की घंटियाँ,
अपने गले से,
और काट डाली,
जंजीरें अपने पैरों से,
मिला सालों की तपस्या का
वरदान - आजादी ।
उम्मीद थी कि जल्दी ही उतर जायेगी,
रात की चादर,
और जागेगी एक नयी सुबह-
सपनो की, उम्मीदों की, उजालों की।
मगर रात.....
रात कटी नही अबतक,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,

नज़र आते हैं इन अंधेरों में भी मगर,
किसानो के बच्चे जो भूखे सो गए,
गरीब बेघर कितने
वहाँ पडे फुटपाथों पे, चीथड़ों में,
सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,
आहें उन नौजवानों की,
जिनके कन्धों पर भार हैं,
मगर "बेकार"हैं,
चीखें उन औरतों की,
जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं,
वासना भरी नज़रों का
झेलती रोज बलात्कार हैं,
चकलों में, चौराहों में शोर है,
ज़ोर है- ज़ोर का राज है,
हैवान सडकों पर उतर आये,
सिम्हासनों पर विराज गए,
अवाम सो गयी,
नपुंसक हो गयी कॉम,
हिंदुओं ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,
तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,

किसी बेबस माँ ने
बेच दी अपनी कोख कहीँ तो,
किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,
अपने ही लक्ते-जिगर को,
उफ़ ये अँधेरा कितना कारी है
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,

इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,
चमक जाते हैं कुछ जुगनू राहत बन कर,
और कुछ मुट्टी भर सितारे,
चमक रहे हैं यूं तो,
मेरे भी मुल्क के आसमान पर,
मगर फिर भी,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,

जुगनू नही, तारे नही,
आफताब चाहिए,
जिसकी रौशनी में चमक उठे,
जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,
जिसकी पुकार से नींद टूटे,
सोयी रूहों की,
पंछियों को गीत मिले,
बच्चों को खुला आसमान दिखे,
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दीये,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब
एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है...